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अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस : विवाद क्यों

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योग भारत की प्राचीन परंपरा का एक अमूल्य उपहार है। यह मन और शरीर के एकात्म का प्रतीक है; इसके द्वारा कार्य और विचारों में संयम और समग्रता; मनुष्य और प्रकृति के बीच सामंजस्य तथा स्वास्थ्य के लिए एक व्यवहारिक दृष्टिकोण स्थापित होता है। यह केवल व्यायाम ही नहीं है बल्कि इस जगत और प्रकृति में स्वयं को और एकात्म की भावना को खोजने का माध्यम भी है। योग का उद्गम भारत में 6,000 से अधिक वर्ष पूर्व हुआ था। यह एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा मानव को आध्यात्मिक, शारीरिक और मानसिक लाभों की प्राप्ति होती है।

अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाये जाने का कारण

11 दिसम्बर 2014 के दिन United Nations General Assembly द्वारा अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस को 21 जून को मनाये जाने की घोषणा हो गयी थी। दरअसल 21 जून को योग के अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाये जाने का कारण यह है कि इस दिन उत्तरी गोलार्द्ध में साल का सबसे लंबा दिन होता है जिसे ग्रीष्म संक्रांति ही कह सकते हैं, इसका विश्व के अनेक हिस्सों में विशेष महत्व है। भारतीय संस्कृति के दृष्टिकोण से, ग्रीष्म संक्रांति के बाद सूर्य दक्षिणायन हो जाता है और इसके बाद पहली पूर्णिमा गुरु पूर्णिमा के रूप में जानी जाती है। ऐसा माना जाता है कि सूर्य के दक्षिणायन का समय आध्यात्मिक सिद्धियां प्राप्त करने में बहुत लाभकारी है। इस कार्यक्रम को अनिवार्य न करके ऐच्छिक कर दिया गया है जो कि मेरे विचार से एक उचित निर्णय है। इसकी विशेषता है कि यह सिर्फ सांसों को लेने और छोड़ने तथा शरीर कि कुछ मुद्राओं के द्वारा ही आपके शारीरिक और मानसिक तनाव को दूर कर देता है। बिना उचित निर्देशन के योग का पूर्ण लाभ नहीं मिल सकता है। एक विशेषज्ञ से सीखने के बाद ही, योग रोगों की चिकित्सा में भी उचित रूप से सहायक हो पाता है। यह अंत: स्रावी प्रणाली को उत्तेजित करता है, हॉर्मोन के उत्पादन को विनियमित करता है, अवसाद को दूर करता है और क्षतिग्रस्त न्यूरॉन्स की मरम्मत में भी सहायक होता है।

क्या विवाद है

इन्हीं सबके बीच अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की घोषणा हुई है जो आजकल विवादों का अखाड़ा बना हुआ है। माननीय प्रधानमंत्री जी ने योग को उसी पुराने वैभव तक पहुंचाने के लिए प्रयास किये हैं जिससे भारत कि इस विधा का दुनिया में परचम लहराया जा सके जैसे हजारों वर्ष पूर्व था। परन्तु इस प्रयास के बीच में कुछ धार्मिक मुद्दे भी उभर कर सामने आये हैं मसलन यह सभी धर्मों को किस हद तक स्वीकार्य है?

विवादों की पृष्ठभूमि

भारत पर अनेक विदेशी आक्रमणकारियों और लुटेरों ने समय-समय पर हमले किये जिसके फलस्वरूप भारत ने अनेक देशों की सभ्यता और संस्कृतियों को आत्मसात किया। इन लुटेरों और आक्रमणकारियों में कुछ अपनी सेनाओं के साथ आए तो थे भारत को लूटने और नीचा दिखाने की चेष्टा के लिए लेकिन विभिन्न परिस्थितिवश वो भारत भूमि में ही बस गए और उन्होंने यहां के अनेक निवासियों को तलवार के बल पर डरा-धमकाकर और प्रलोभन देकर अपने धर्म या पूजा पद्धति से पूजा करने के लिए बाध्य कर दिया। आज भारत की 99% जनसंख्या का मूल उद्गम वही भारतीय DNA है लेकिन उन लोगों में से विदेशी आक्रांताओं के प्रभाव में आये हुए लगभग 15% निवासियों की पूजा पद्धति अलग है। दरअसल यही इस सब विवाद की जड़ है। यहां अधिकांश विवाद विशेष पूजा पद्धतियों का भारतीय विरासत और संस्कृति में अंतर नहीं समझने के कारण हो रहा है।

जिस प्रकार मिस्र में अधिकांश जनसंख्या एक धर्म विशेष की पूजा पद्धति में विश्वास करती है, पर उसे आज भी हज़ारों साल पुरानी अपनी मिस्र की सभ्यता, पिरामिड इत्यादि पर गर्व है, ईरान को हजारों वर्ष पुरानी अपनी फ़ारसी सभ्यता पर गर्व है और उसे बचाने के लिए वो लगे हुए हैं। इंडोनेशिया की पूजा पद्धति भी वही है लेकिन उन लोगों को भी अपनी हज़ारों साल पुरानी सभ्यता पर गर्व है और उन्होंने धर्म, पूजा पद्धति और संस्कृति में विभेद के लिए बिलकुल अलग मानक बना रखे हैं। लेकिन भारत में कुछ राजनीतिक स्वार्थों के कारण पूजा पद्धति/ धर्म और सभ्यता-संस्कृति को मिला जुलाकर बताया जाता रहा है और समय-समय पर प्रचारित किया जाता है कि कोई कार्य करने से किसी धर्म विशेष को ठेस पहुंचेगी, जो कि देश की एकता के लिए किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं है। इसी कारण से अनेक पूजा पद्धतियों को मानने वालों में मतभेद उत्पन्न हो होते रहते हैं।

भारतीय संस्कृति क्या है

संस्कृति किसी समाज में गहराई तक व्याप्त गुणों का नाम है, जो उस समाज के सोचने, विचारने, कार्य करने, खाने-पीने, बोलने, नृत्य, गायन, साहित्य, कला, वास्तु आदि में परिलक्षित होती है। संस्कृति का वर्तमान रूप किसी समाज के दीर्घ काल तक अपनायी गयी पद्धतियों का परिणाम होता है।

‘संस्कृति’ शब्द संस्कृत भाषा की धातु ‘कृ’ (करना) से बना है। इस धातु से तीन शब्द बनते हैं ‘प्रकृति’ (मूल स्थिति), ‘संस्कृति’ (परिष्कृत स्थिति) और ‘विकृति’ (अवनति स्थिति)। जब ‘प्रकृत’ या कच्चा माल परिष्कृत किया जाता है तो यह संस्कृत हो जाता है और जब यह बिगड़ जाता है तो ‘विकृत’ हो जाता है। अंग्रेजी में संस्कृति के लिये ‘कल्चर’ शब्द प्रयोग किया जाता है जो लैटिन भाषा के ‘कल्ट या कल्टस’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है जोतना, विकसित करना या परिष्कृत करना । संक्षेप में, किसी वस्तु को यहां तक संस्कारित और परिष्कृत करना कि इसका अंतिम उत्पाद हमारी प्रशंसा और सम्मान प्राप्त कर सके। यह ठीक उसी तरह है जैसे संस्कृत भाषा का शब्द ‘संस्कृति’।

मनुष्य स्वभावतः प्रगतिशील प्राणी है। यह बुद्धि के प्रयोग से अपने चारों ओर की प्राकृतिक परिस्थिति को निरन्तर सुधारता और उन्नत करता रहता है। ऐसी प्रत्येक जीवन-पद्धति, रीति-रिवाज रहन-सहन आचार-विचार नवीन अनुसंधान और आविष्कार, जिससे मनुष्य पशुओं और जंगली स्तर से ऊंचा उठता है तथा सभ्य बनता है, सभ्यता और संस्कृति का अंग है। सभ्यता (Civilization) से मनुष्य के भौतिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है जबकि संस्कृति (Culture) से मानसिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है। मनुष्य केवल भौतिक परिस्थितियों में सुधार करके ही संतुष्ट नहीं हो जाता। वह भोजन से ही नहीं जीता, शरीर के साथ मन और आत्मा भी है। भौतिक उन्नति से शरीर की भूख मिट सकती है, किन्तु इसके बावजूद मन और आत्मा तो अतृप्त ही बने रहते हैं। इन्हें सन्तुष्ट करने के लिए मनुष्य अपना जो विकास और उन्नति करता है, उसे संस्कृति कहते हैं। मनुष्य की जिज्ञासा का परिणाम धर्म और दर्शन होते हैं। सौन्दर्य की खोज करते हुए वह संगीत, साहित्य, मूर्ति, चित्र और वास्तु आदि अनेक कलाओं को उन्नत करता है। सुखपूर्वक निवास के लिए सामाजिक और राजनीतिक संघटनों का निर्माण करता है। इस प्रकार मानसिक क्षेत्र में उन्नति की सूचक उसकी प्रत्येक सम्यक् कृति संस्कृति का अंग बनती है। इनमें प्रधान रूप से धर्म, दर्शन, सभी ज्ञान-विज्ञानों और कलाओं, सामाजिक तथा राजनीतिक संस्थाओं और प्रथाओं का समावेश होता है। प्रारम्भ में मनुष्य आंधी-पानी, सर्दी-गर्मी सब कुछ सहता हुआ जंगलों में रहता था, शनैः – शनैः उसने इन प्राकृतिक विपदाओं से अपनी रक्षा के लिए पहले गुफाओं और फिर क्रमशः लकड़ी, ईंट या पत्थर के मकानों की शरण ली। अब वह लोहे और सीमेन्ट की गगनचुम्बी अट्टालिकाओं का निर्माण करने लगा है।

सभ्यता का क्या अर्थ है

‘सभ्यता’ का अर्थ है जीने के बेहतर तरीके और कभी-कभी अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अपने समक्ष प्रकृति को भी झुका देना। इसके अन्तर्गत समाजों को राजनैतिक रूप से सुपरिभाषित वर्गों में संगठित करना भी सम्मिलित है जो भोजन, वस्त्र, संप्रेषण आदि के विषय में जीवन स्तर को सुधारने का प्रयत्न करते रहते हैं। इस प्रकार कुछ वर्ग अपने आप को अधिक सभ्य समझते हैं, और दूसरों को हेय दृष्टि से देखते हैं। कुछ वर्गों की इस मनोवृत्ति ने कई बार संघर्षों को भी जन्म दिया है जिनका परिणाम मनुष्य के विनाशकारी विध्वंस के रूप में हुआ है।

सांस्कृतिक विकास एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है। हमारे पूर्वजों ने बहुत सी बातें अपने पुरखों से सीखी हैं। समय के साथ उन्होंने अपने अनुभवों से उसमें और वृद्धि की। जो अनावश्यक था, उसको उन्होंने छोड़ दिया। हमने भी अपने पूर्वजों से बहुत कुछ सीखा। जैसे-जैसे समय बीतता है, हम उनमें नए विचार, नई भावनाएं जोड़ते चले जाते हैं और इसी प्रकार जो हम उपयोगी नहीं समझते उसे छोड़ते जाते हैं। इस प्रकार संस्कृति एक पीढी से दूसरी पीढी तक हस्तांतरित होती जाती है। जो संस्कृति हम अपने पूर्वजों से प्राप्त करते हैं उसे सांस्कृतिक विरासत कहते हैं। यह विरासत कई स्तरों पर विद्यमान होती है। मानवता ने सम्पूर्ण रूप में जिस संस्कृति को विरासत के रूप में अपनाया उसे ‘मानवता की विरासत’ कहते हैं । एक राष्ट्र भी संस्कृति को विरासत के रूप में प्राप्त करता है जिसे ‘राष्ट्रीय सांस्कृतिक विरासत’ कहते हैं। सांस्कृतिक विरासत में वे सभी पक्ष या मूल्य सम्मिलित हैं जो मनुष्यों को पीढ़ी दर पीढ़ी अपने पूर्वजों से प्राप्त हुए हैं। वे मूल्य पूजे जाते हैं, संरक्षित किए जाते हैं और अटूट निरन्तरता से सुरक्षित रखे जाते हैं और आने वाली पीढ़ियां इस पर गर्व करती हैं।

वास्तु संबंधित इन रचनाओं, इमारतों, शिल्पकृतियों के अलावा बौद्धिक उपलब्धियां, दर्शन, ज्ञान के ग्रन्थ, वैज्ञानिक आविष्कार और खोज भी विरासत का हिस्सा हैं। भारतीय संदर्भ में गणित, खगोल विद्या और ज्योतिष के क्षेत्र में बौधायन, आर्यभट्ट और भास्कराचार्य का योगदान, भौतिकशास्त्र के क्षेत्र में कणाद और वराहमिहिर का, रसायनशास्त्र के क्षेत्र में नागार्जुन, औषधि के क्षेत्र में सुश्रुत और चरक, योग के क्षेत्र में पतञ्जलि हमारी भारतीय सांस्कृतिक विरासत के प्रगाढ़ खजाने हैं। संस्कृति परिवर्तनशील है लेकिन हमारी विरासत परिवर्तनील नहीं है।

संस्कृति का एक मौलिक तत्त्व है, धार्मिक विश्वास और उसकी प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति। हमें धार्मिक पहचान का सम्मान करना चाहिए, साथ ही सामयिक प्रयत्नों से भी परिचित होना चाहिए जिनसे अन्तःधार्मिक विश्वासों की बातचीत हो सके, जिन्हें प्रायः ‘अन्तः सांस्कृतिक वार्तालाप’ कहा जाता है। विश्व जैसे-जैसे जुड़ता चला जा रहा है, हम अधिक से अधिक वैश्विक हो रहे हैं और अधिक व्यापक वैश्विक स्तर पर जी रहे हैं। हम यह नहीं सोच सकते कि जीने का एक ही तरीका होता है और वही सत्य मार्ग है। सह-अस्तित्व की आवश्यकता ने विभिन्न संस्कृतियों और विश्वासों के सह-अस्तित्व को भी आवश्यक बना दिया है। इसलिए इससे पहले कि हम इस प्रकार की कोई गलती करें, अच्छा होगा कि हम अन्य संस्कृतियों को भी जानें और साथ ही अपनी संस्कृति को भी भली प्रकार समझें । हम दूसरी संस्कृतियों के विषय में कैसे चर्चा कर सकते हैं जब तक हम अपनी संस्कृति के मूल्यों को भी भली प्रकार न समझ लें।

सत्य, शिव और सुन्दर ये तीन शाश्वत मूल्य हैं जो संस्कृति से निकट से जुड़े हैं। यह संस्कृति ही है जो हमें दर्शन और धर्म के माध्यम से सत्य के निकट लाती है। यह हमारे जीवन में कलाओं के माध्यम से सौन्दर्य प्रदान करती है और सौन्दर्यानुभूतिपरक मानव बनाती है। यह संस्कृति ही है जो हमें नैतिक मानव बनाती है और दूसरे मानवों के निकट सम्पर्क में लाती है और इसी के साथ हमें प्रेम, सहिष्णुता और शान्ति का पाठ पढ़ाती है।

धर्म (या मज़हब) किसी एक या अधिक पारलौकिक शक्ति में विश्वास और इसके साथ-साथ उससे जुड़े रीति-रिवाज़, परम्परा, पूजा-पद्धति और दर्शन का समूह है। ताजमहल, स्वामी नारायण मंदिर (गांधी नगर और दिल्ली), आगरे का लाल किला, दिल्ली की कुतुब मीनार, मैसूर महल, दिलवाड़ा का जैन मंदिर (राजस्थान), निजामुद्दीन-औलिया की दरगाह, अमृतसर का स्वर्ण मंदिर। दिल्ली का शीशगंज गुरुद्वारा, सांची स्तूप, गोआ में क्रिश्चियन चर्च, इंडिया गेट आदि हमारी विरासत के महत्त्वपूर्ण स्थान हैं और ये किसी भी प्रकार संरक्षित किये जाने चाहिए। उसी प्रकार योग भी हमारी सांस्कृतिक विरासत है और हमें इसका सम्मान करना चाहिए।

इस संबन्ध में विद्वानों का अभिमत है कि आज धर्म के जिस रूप को प्रचारित एवं व्याख्यायित किया जा रहा है उससे बचने की जरूरत है। वास्तव में धर्म संप्रदाय नहीं है। ज़िंदगी में हमें जो धारण करना चाहिए, वही धर्म है। नैतिक मूल्यों का आचरण ही धर्म है। धर्म वह पवित्र अनुष्ठान है जिससे चेतना का शुद्धिकरण होता है। धर्म वह तत्व है जिसके आचरण से व्यक्ति अपने जीवन को चरितार्थ कर पाता है। यह मनुष्य में मानवीय गुणों के विकास की भावना है, सार्वभौम चेतना का सत्संकल्प है। आज के युग ने यह चेतना प्रदान की है कि विकास का रास्ता हमें स्वयं बनाना है। किसी समाज या देश की समस्याओं का समाधान कर्म-कौशल, व्यवस्था-परिवर्तन, वैज्ञानिक तथा तकनीकी विकास, परिश्रम तथा निष्ठा से संभव है।

भारतीय संस्कृति विश्व के इतिहास में कई दृष्टियों से विशेष महत्व रखती है। यह संसार की प्राचीनतम संस्कृतियों में से है। मोहनजोदड़ो की खुदाई के बाद से यह सभ्यता मिस्र, मेसोपोटामिया की सबसे पुरानी सभ्यताओं के समकालीन समझी जाने लगी है। प्राचीनता के साथ इसकी दूसरी विशेषता अमरता है। चीनी संस्कृति के अतिरिक्त पुरानी दुनिया की अन्य सभी मेसोपोटामिया की सुमेरियन, असीरियन, बेबीलोनियन और खाल्दी प्रभृति तथा मिस्र ईरान, यूनान और रोम की संस्कृतियां काल के कराल गाल में समा चुकी हैं। कुछ ध्वंसावशेष ही उनकी गौरव-गाथा गाने के लिए बचे हैं, किंतु भारतीय संस्कृति कई हज़ार वर्ष तक काल के क्रूर थपेड़ों को खाती हुई आज तक जीवित है।

भारतीय संस्कृति में नमस्कार

नमस्ते या नमस्कार या नमस्कारम् भारतीय उपमहाद्वीप में अभिनंदन या अभिवादन करने के सामान्य तरीके हैं। हालांकि नमस्कार को नमस्ते की तुलना में ज्यादा औपचारिक माना जाता है, दोनों ही गहरे सम्मान के सूचक शब्द हैं। आम तौर पर इसे भारत और नेपाल में हिन्दू, जैन और बौद्ध लोग प्रयोग करते हैं, कई लोग इसे भारतीय उपमहाद्वीप के बाहर भी प्रयोग करते हैं। भारतीय और नेपाली संस्कृति में ये शब्द लिखित या मौखिक बोलचाल की शुरुआत में प्रयोग किया जाता है। हालांकि विदा होते समय भी हाथ जोड़े हुए यही मुद्रा बिना कुछ कहे बनायी जाती है। योग में, योगगुरु और योग शिष्यों द्वारा बोले जाने वाली बात के आधार पर नमस्ते का मतलब “मेरे भीतर की रोशनी तुम्हारे अन्दर की रोशनी का सत्कार करती है” होता है।

शाब्दिक अर्थ में, इसका मतलब है “मैं आपको प्रणाम करता हूं” यह शब्द संस्कृत शब्द नमस् यानी प्रणाम (bow), श्रद्धा (obeisance), आज्ञापालन, वंदन (salutation) और आदर (respect) और ते: का अर्थ “आपको” के संदर्भ में लिया गया है। किसी और व्यक्ति से कहे जाते समय, साधारण रूप से इसके साथ एक ऐसी मुद्रा बनाई जाती है जिसमें सीने या वक्ष के सामने दोनों हाथों की हथेलियां एक दूसरे को छूती हुई और उंगलियां ऊपर की ओर होती हैं। अपनी बात कहने के लिए आपको बस यह मद्रा बना लेना ही काफी होता है, कुछ बोलने की आवश्यकता नहीं पड़ती।

सारांश

योग अपने मौलिक रूप में एक विज्ञान है और यह वैज्ञानिक अनुसंधानों द्वारा भी सिद्ध हो चुका है। वास्तव में यह काम करता है। इसे उपयोग करने के बाद आप हिंदू, मुसलमान या ईसाई या कोई अन्य धर्म मानने वाले नहीं बनेंगे बल्कि एक समग्र जागरूक मनुष्य बनेंगे। भारत में सभी धर्म और पंथ मानने की स्वतंत्रता है। हमारे देश की सभ्यता में किसी को जोर ज़बरदस्ती या तलवार के बल पर अपनी बात या धर्म को मानने के लिए बाध्य नहीं किया जाता है; न ही ऐसी कोशिशों को बल दिया जाता है। आज योग को धर्म से नहीं बल्कि भारत की अनमोल विरासत के रूप में देखने की आवश्यकता है। योग करें और स्वस्थ रहें। फिर भी यदि किसी को योग से आपत्ति है तो वह बिलकुल न करे।

 

डॉ.स्वास्तिक

चिकित्सा अधिकारी

(आयुष विभाग, उत्तराखंड शासन)

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