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जानें :किसे कहा जाता है रोगरूपी सत्य का नाश करनेवाली वनस्पति!

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आज हम आपको एक ऐसी वनस्पति के बारे में जानकारी देने जा रहे हैं जिसका नाम सुनकर आपको कुछ अजीब सा लग सकता है नाम है ‘सत्यानाशी’ !आप सोच रहे होंगे भला यह किस काम की हो सकती है जब इसका नाम ही ऐसा है ! जी नहीं ,शायद गलत सोच रहे हैं आप यह वाकई रोगों को सच्चाई के साथ नाश करनेवाली एक वनस्पति है Iयूँ तो इस वनस्पति का उद्गम अमेरिका से माना जाता है लेकिन अब यह सम्पूर्ण भारतवर्ष में समुद्रतल से 1500मीटर तक कि उंचाई तक आपको मिल जायेगी I पर्वतीय क्षेत्र में भी ढलानों पर आप इस कटीली वनस्पति को आराम से देख सकते हैं I इसे स्वर्णक्षीरी,भड-भाड़,फिरंगी धतूरा जैसे नामों से जाना जाता है I इस वनस्पति का लेटीन नाम ‘आरगेमोन मेक्सिकाना’ है जिसे अंग्रेजी में ‘मेक्सिकन पोपी’ के नाम से भी जाना जाता है I इसके 2 से 4 फुट की झाडी में छोटे-छोटे कांटेदार पत्तियाँ आपको इसकी पहचान कराने में मददगार होंगे I यह वनस्पति कुमाँऊं एवं गढ़वाल (जौनसार) के हिमालयी क्षेत्र में पायी जानेवाली लुप्त होने के खतरे का सामना कर रही इथनो-मेडिसिनल वनस्पतियों के अंतर्गत आती है I मेक्सिको में सम्पूर्ण वनस्पति का प्रयोग सुखाकर एक औषधीय द्रव्य के रूप में इन्फ्युसन के तौर पर क्रमशः रीनल-कोलिक (किडनी में होनेवाले दर्द ) एवं प्रसव वेदना को कम करने के लिये किया जाता रहा है I स्पेनिश लोगों द्वारा भी इसका ‘कारडोसानटो’ नाम से मदहोश एवं वेदना कम करनेवाली चाय को बनाने में प्रयोग किया जाता रहा है I हाँ ,एक बात जो ध्यान में रखने की है कि इसके जहरीले बीजों का रंग सरसों के बीजों के समान होता है इस कारण इसकी मिलावट अक्सर कर दी जाती है I इसके बीज विषैले होते है अतः खाने योग्य नहीं होते हैं I सरसों के तेल में इसके बीजों की मिलावट के कारण ही वर्ष 1998 में हमारे देश में ड्राप्सी हुआ था I लेकिन इसका मतलब यह तय है कि इसमें पाए जानेवाले गुणों का निश्चित रूप से औषधीय प्रयोग भी होता होगा ..आइये आज हम आपको इसके औषधीय प्रयोग के बारे में सक्षिप्त जानकारी प्रदान करने का प्रयास करते हैं :-
-नेत्र रोगों में इससे निकलनेवाले दूध की एक महज एक बूँद को तीन से चार बूँद गौ -घृत में मिलाकर अंजन करने से काफी लाभ मिलता है I
-इसका क्षार बनाकर इसकी एक ग्राम की मात्रा ,लगभग 50 मिली गुलाब जल में मिलाकर प्रतिदिन इसे दो-दो बूँद नेत्रों में डालने से नेत्र रोगों में काफी लाभ मिलता है संभवतः इसके दूध में पाए जानेवाले इन्हेएं गुणों के कारण इसका नाम स्वर्ण-क्षीरी नाम दिया गया होगा I
-इसकी पत्तियों का स्वरस भी 2-2 बूँद आँखों में टपका देने से नेत्र रोगों में काफी लाभ मिलता है I
इसके बारे में भावप्रकाश नामक ग्रन्थ में कहा गया है कि
हेमाह्वा रेचनी तिक्ताभेद्न्युत्क्लेशकारिणी!
कृमि कंडू विषानाहककफपित्तास्रकुष्ठनुत!!
अर्थात यह रेचक गुणों के साथ-साथ तिक्त,भेदन एवं उत्क्लेश करने वाली औषधि है ,जिसका प्रयोग पेट के कीड़ों से लेकर,खुजली,विष,आनाह,कफ़-पित्त एवं त्वचा रोगों में किया जा सकता है I
-मूत्रनली में उत्पन्न होनेवाली जलन में इसके 20 ग्राम पंचांग को लगभग 200 ग्राम की मात्रा में भिंगाकर फाँट बनाकर रोगी को पिलाने से मूत्र खुलकर आता है और जलन कम हो जाती है I
-यदि जौंडिस की स्थिति हो तो इसके तेल को गिलोय के 10 मिली स्वरस के साथ सुबह शाम पिलाने से रेचन प्रभाव के कारण लाभ मिलता है I
-एसाइटीस (जलोदर ) के रोगियों में भी इसके बीजों को छोड़कर पंचांग का स्वरस पांच से दस मिली पिलाने से डाययुरेटिक प्रभाव के कारण मूत्र कहकर आता है और जलोदर में लाभ मिलता है I
-इसके तेल का वेद्नाशामक प्रभाव भी देखा गया है I
-किसी भी प्रकार के त्वचा रोगों में इसके बीजों से निकाले गए तेल का बाह्य प्रयोग मालिश के रूप में करने से एवं पत्तियों के स्वरस को पांच से दस मिली की मात्रा में लगभग 250 मिली गौ-दुग्ध के साथ सुबह शाम पिलाने से लाभ मिलता है I
-यह एक ऐसी औषधि है जिससे नपुंसकता को दूर किया जा सकता है बस इसकी एक ग्राम पंचांग को बरगद के दुग्ध के साथ मिलाकर बटी के रूप में रोगी को लगभग एक माह तक सुबह शाम सेवन कराना चाहिए I
-खुजली हो या किसी प्रकार का पुराना घाव हो इसके दुग्ध के प्रयोग मात्र से लाभ मिलता है I

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