
रोगों की उत्पत्ति की मुख्य वजह पर यदि गौर किया जाय तो आचार्य चरक ने बड़ा ही अच्छा सन्दर्भ प्रस्तुत किया है:
सर्व शरीरचरास्तु वात पित्त श्लेष्मणा सर्वस्मिञ्छ शरीरे कुपिताकुपिता:शुभाशुभानि कुर्वन्ति-प्रकृतिभूता:शुभान्युपचयबलवर्ण प्रसादानि, अशुभानि पुनर्विकृतिमापन्ना विकारसंज्ञकानि*
-चरक संहिता:20/9
सम्पूर्ण शरीर में गमन करने वाला वात-पित्त -कफ सम्पूर्ण शरीर में कुपित और अकुपित होकर शुभ और अशुभ कार्यों को करते हैं।यदि ये स्वयं के स्वाभाविक अवस्था में रहते हैं तो शरीर में उपचय यानि मेटाबोलिक एक्टिविटीज को करते हैं जिनसे बल वर्ण एवं प्रसन्नता प्राप्त होती है और जब ये विकृत अवस्था में होते है तो रोगस्वरूप अशुभ कार्यों को करते हैं।
अर्थात स्वस्थ रहने के लिये तीनों दोषों की स्वाभाविक अवस्था परमावश्यक है।
पंचकर्म चिकित्सा करने से पूर्व चिकित्सक को इस तथ्य से भलीभांति परिचित होना आवश्यक है।
पुनः आचार्य चरक अनुसार:-
संशोधन संशमनं निदानस्य च वर्जनम्! एतावद् भिषजा कार्ये रोगे रोगे यथा विधि! !
चरक विमान स्थान 7/30
अर्थात संशोधन संशमन एवं निदानों का परित्याग ही प्रमुख उपक्रम हैं।
संशोधन प्रकुपित दोषों को शरीर से बाहर निकाल देना।
सामन्यतया पंचकर्म की समस्त विधियां शोधन का ही कार्य करती है अतः शोधन के अंतर्गत ही पंचकर्म चिकित्सा का भी समावेश किया गया है।
लेकिन विस्तार रूप से देखा जाय तो पंचकर्म एक पूर्ण चिकित्सा है जिसमे उरूस्तम्भ को छोड़कर सभी रोगों की चिकित्सा की जा सकती है।
यानि पंचकर्म चिकित्सा से महज शरीर के शोधन का कार्य ही नही होता अपितु शमन-पाचन एवं वृहण का कार्य भी होता है।
शोधन चिकित्सा का मूल (Root ) आचार्य वाग्भट्ट द्वारा वर्णित द्विधोपक्रम में है-
उपक्रमस्य द्वितवाधि द्विधोपक्रमः मतः!
एक संतरपनस्तत्र द्वितीयश्चाप तर्पण:!!
यानि उपक्रम भेद से चिकित्सा के दो प्रकार होते हैं।
संतर्पण चिकित्सा
अपतर्पण चिकित्सा
अधिकाँश चिकित्सकों से ये पूछा जाता है कि पंचकर्म चिकित्सा का मूल स्रोत क्या है? तो चिकित्सक यह उत्तर देते हैं कि पंचकर्म चिकित्सा का मूल स्रोत शोधन चिकित्सा है जबकि शोधन मूल रूप से लंघन के दो भेदों में (शोधन एवं शमन) में से एक है और लंघन आचार्य चरक द्वारा बताये गए 6 उपक्रमों में से एक है ।
लंघन वृहणं काले रुक्षणम् स्नेहनं तथा!
स्वेदनं स्तम्भनं चैव जानीत यः स वै भिषक्*!!
-चरक सूत्र स्थान 22/4
अर्थात लंघन,वृहण ,रुक्षण ,स्नेहनं,स्वेदन एवं स्तंभन ‘षड् -विधोपक्रम’ को ठीक ढंग से समझना चिकित्सक के लिए आवश्यक है।
और चिकित्सा का विस्तृत स्वरुप होते हुए भी मूल रूप से सारी चिकित्सा इन्ही 6 उपक्रमों में समाविष्ट हो जाती है ।
पंचकर्म चिकित्सा को हम सामान्य रूप से शोधन चिकित्सा कह सकते हैं लेकिन इसका मूल स्रोत आचार्य चरक द्वारा वर्णित *षड् -विधोपक्रम’ में है।
पंचकर्म चिकित्सा के सन्दर्भ:-
-तान्युपस्थित दोषाणाम् स्नेहस्वेदोपपादानैः!
पंचकर्माणि कुर्वीत मात्राकालौ विचारयन्।
-चरक सूत्र स्थान 2/15
अर्थ:दोषों के उतक्लिष्ट होने पर स्नेहनं एवं स्वेदन का प्रयोग कराकर मात्रा और काल को ध्यान में रखते हुए पंचकर्म कराना चाहिए।
-का कल्पना पंचसुकर्म सुक्ता,क्रमश्च कः किं च कृताकृतेषु।
-चरक सिद्धि स्थान 1/3
-इति पंचविध विस्तरेण निदर्शितम्।।
-चरक सिद्धि स्थान 2/24
आचार्य चरक ने सिद्धि स्थान में अग्निवेश द्वारा गुरु आचार्य पुनर्वसु से पूछे गए 12 प्रश्नों में से पहला प्रश्न इस रूप में किया है कि….
पाँचों कर्मों की कल्पना कैसे की जा सकती है?
आगे सिद्धि स्थान अध्याय 2 में …इस प्रकार पंचकर्म का विस्तार से वर्णन इस अध्याय में किया गया उद्धृत किया है।
पुनः चरक सिद्धि स्थान के ही 12 वें अध्याय के 33 वें सूत्र में सिद्धि स्थान की निरुक्ति को स्पष्ट करते हुए कहा है…
कर्मणां वमनदीनाम्सम्यक्करणपदाम्!
यत्रोक्त साधनं स्थाने सिद्धिस्थानं तदुच्यते!!
अर्थ:वमन ,विरेचन आदि कर्मों का समुचित रूप से न करने पर उत्पन्न हुए रोगों का वर्णन और उसकी चिकित्सा का समुचित निर्देश करने के कारण ही इस सिद्धि स्थान नाम दिया गया है।
चरकोक्त उपरोक्त सभी सन्दर्भ इस बात को स्पष्ट करते हैं कि पंचकर्म चिकित्सा में वमन विरेचन अनुवासन वस्ति,निरुह वस्ति एवं नस्य कर्म आते हैं!