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आयुर्वेद एवं परिवार नियोजन

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मारी धर्म एवं संस्कृति पूरी दुनिया के लिए मार्गदर्शक रही हैं , हमारे यहाँ धरा को माँ की तरह वन्दनीय माना गया है तथा पूरे जगत को वसुधैव कुटुम्बकम नाम से एक ही माना गया है। दुनिया के किसी भी कोने में पनप रहे जीवन को ईश्वर की संतान मानकर, हर एक प्राणी के प्रति दया एवं करुणा का भाव रखने को कहा गया है। हमारे गौरवशाली इतिहास का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है, कि़ भारत के नाम पर ही समुद्र के एक हिस्से को इंडीयन ओसियन नाम दिया गया है।विश्व के प्राचीन ग्रन्थ वेद एवं सबसे पुरानी चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद एवं योगशास्त्र हमारी धरोहर हैं। हमने अपने शास्त्रों में अनेक गूढ़ विषयों को वैज्ञानिक रूप से उतना ही कारगर पाया है, जितना यह सदियों पूर्व था। हमारी संस्कृति में पेड़- पौधों और स्त्री को पूजनीय माना गया है और हम सब धरती माता के संतान माने गए हैं। शास्त्रों में माता पर अनावश्यक बोझ,भविष्य की पीढिय़ों के लिए खतरनाक होने का अंदेशा भी माना गया है। यह बात सत्य है, कि़ प्राचीन काल में राजाओं की अनेक रानियाँ हुआ करती थी और उनके अनेक पुत्र भी थे , महाभारत इसका एक उदाहरण है। लेकिन लड़ाइयों एवं आपदाओं में हजारों की संख्या में मृत्यु का सत्य भी हमारे सामने है, अर्थात नियंत्रित जनसंख्या धरती पर सामंजस्य के लिए आवश्यक है ,इस सत्य को नकारा नहीं जा सकता है। इन्ही कारणों से हमारे शास्त्र संतति -नियोजन पर बल देते रहे हैं। संतति शब्द का अर्थ विस्तार ,निरंतरता या नित्यता से है। संतान शब्द फैलाव ,परिवार एवं प्रजा का द्योतक है।गर्भ, भ्रूण एवं गर्भस्थ शिशु के लिए प्रयुक्त शब्द है, जबकि निरोध शब्द, कैद, प्रतिबन्ध या नियंत्रण के लिए प्रयुक्त है, आयुर्वेद के प्राचीन ग्रन्थ चरक संहिता में संतति के साथ बुद्धिसंतति का वर्णन है। सुसन्तति प्राप्ति हेतु वाजीकरण एवं रसायन औषधियों को कारगर बताया गया है।आयुर्वेद एवं योगशास्त्र में वर्णित आचार रसायन सुसन्तति प्राप्ति के लिए आवश्यक बताये गए हैं। कहा गया है, कि़ ‘जहां सुसन्तति तहां संपत्ति नाना ।अनियोजित संतति ,मूलक सुखों का नाश करती है। आयुर्वेद वांग्मय में सुसन्तति प्राप्ति हेतु आहार निद्रा एवं ब्रह्मचर्य को उपयोगी माना गया है। चरक संहिता के ‘अतुलगोत्रीय अध्याय ‘ में मैथुन के योग्य व् अयोग्य स्त्री का वर्णन है, एवं विकृत मानसिक अवस्था से उत्पन्न विकृत संतानों की उत्पत्ति का वर्णन भी है , साथ ही सुसन्तति प्राप्ति हेतु दिशा -निर्देश भी दिए गए हैं।यह बात सत्य है, कि़ आयुर्वेदिक संहिता ग्रंथों में संतति निरोध के साधनों का उतना वर्णन नहीं है , जितना नियोजन के उपायों का वर्णन है। इसके पीछे संभवत: उस काल में सद-वृत के नियमों का उचित रूप से पालन किया जाना होगा। हमारे वैदिक ग्रंथों में प्रकृति को पूजनीय समझा जाता था, अत: वृक्षों सहित प्रकृति के हर जीव की रक्षा के लिए मनुष्य प्रयत्नशील रहता था। आर्थिक संपदाएं प्रचुर मात्रा में थी,अत: संतति निरोध की आवश्यकता ही नहीं रही होगी। हमारे आयुर्वेदिक ग्रंथों में गर्भ क़ी स्थापना एवं प्रजास्थापन द्रव्यों का तो वर्णन है ,परन्तु सीधे संतति निरोध का निर्देश नहीं किया गया है, लेकिन यह भी सत्य है, कि़ इनके विपरीत गुण के द्रव्यों से संतति निरोध भी किया जा सकता है। 18 वीं शताब्दी के बाद के आयुर्वेदिक ग्रंथों में संततिनिरोध का वर्णन उपलब्ध है।
ऐसे ही कुछ उपाय आयुर्वेदिक ग्रथों से निकालकर हम आपके सामने लाये हैं , बस आवश्यक इतना है , कि़ आप इसका प्रयोग चिकित्सक के निर्देशन में ही करें तो बेहतर होगा :
-आयुर्वेद में गर्भ निरोध के लिए कुछ ऐसे नियमों को बताया गया है, जिससे संततिनिरोध किया जाना संभव है – आर्तव दर्शन (1-4 दिन ) के बाद ऋतुकाल 12 दिन (5-17दिन ) को आचार्यों ने गर्भउत्पत्ति के लिए बेहतरीन समय माना है ,इसके बाद का 9-13 दिन का समय (18-28 दिन ) ऋतुव्यतीतकाल माना गया है ,ऋतुकाल में मैथुन करने से गर्भ क़ी उत्पत्ति होती है, अत: ऋतु व्यतीतकाल में यदि मैथुन किया जाय तो गर्भ की उत्पत्ति नहीं होती है। आधुनिक विज्ञान भी ऋतुकाल को प्रोलिफेरेटिव पीरियड या फेज मानता है जिसमें ओवुलेशन होता है ,ऋ तु व्यतीतकाल को सेफ- पीरीयड माना गया है अर्थात इस समय मैथुन करने से गर्भ कि़ उत्पत्ति नहीं होती है।
-महर्षि चरक ने स्त्री क़ी विभिन्न शारीरिक स्थितियों में मैथुन को निषिद्ध किया है और कहा है कि़ यदि गर्भाधान क़ी आकांक्षा न हो तो इन स्थितियों में में मैथुन न किया जाय ,क्योंकि संभवत: इन स्थितयों में सेक्स करना खतरनाक हो सकता है , ये स्थितयां अपूर्ण मैथुन क़ी पर इंगित करती हैं। जैसे :न्युब्ज या पाश्र्वलेटकर ,दक्षिण या बाएं ओर लेटकर।
-महर्षि पतंजलि के अनुसार नासिका का स्वर अथवा नाडी का शोधन कर व्यक्ति अपनी इच्छा अनुसार संतान प्राप्त कर सकता हैI

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